На заре ты её не буди, |
На заре она сладко так спит; |
Утро дышит у ней на груди, |
Ярко пышет на ямках ланит. |
И подушка её горяча, |
И горяч утомительный сон, |
И, чернеясь, бегут на плеча |
Косы лентой с обеих сторон. |
А вчера у окна ввечеру |
Долго-долго сидела она |
И следила по тучам игру, |
Что, скользя, затевала луна. |
И чем ярче играла луна, |
И чем громче свистал соловей, |
Всё бледней становилась она, |
Сердце билось больней и больней. |
Оттого-то на юной груди, |
На ланитах так утро горит. |
Не буди ж ты её, не буди... |
На заре она сладко так спит! |
Wenn der Morgen naht, wecke sie nicht, |
Denn so selig schläft sie in der Früh'; |
Auf der Brust hebt sich atmend das Licht, |
Dass das Grübchen der Wange erglüh'. |
Und das Kissen ist unter ihr heiß, |
Brennend heiß auch der Traum, der sie drückt, |
Über Schultern, da gehen auf Reis' |
Schwarze Zöpfe zur Seite gerückt. |
Dort am Fenster sie gestern Nacht saß, |
Lange Zeit, und sie schaute hinein |
In das Wolkenspiel, wo wie zum Spaß |
Langsam tanzte des Monds sanfter Schein. |
Und je heller ergoss sich sein Licht, |
Und je lauter die Nachtigall sang, |
Desto blasser wurd' ihr das Gesicht, |
Desto heftiger ihr Herzschlag klang. |
Daher brennt auf der Brust Morgenlicht, |
Bis dass auch jenes Grübchen erglüh'. |
Darum wecke sie, wecke sie nicht… |
Wenn so selig sie schläft in der Früh'!
(14.09.2022)
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